Thursday, November 5, 2009

अनकही

बात करता हूँ मैं ख़ुद से
बात होती है
मुलाकात करता हूँ मैं ख़ुद से
मुलाकात होती है
मेरी फुर्सत मेरी कोशिश मगर
दिन रात होती है
काली स्याह रातों में
सितारों के नजारों की
जब दरकार होती है
बादल की छटा छा जाती है नभ में
और बरसात होती है
ये खुशबु फूल गुलाब की
हर प्रभात होती है
छुडा कर वो मेरा दामन
कांटे भी चुभोती है
पतवार का प्यार कलि से
काँटों को नागवार गुज़रती है
यही दस्तूर है शायद
कलि तो अली के
साथ होती है
बात करता हूँ मैं ख़ुद से
बात होती है !!

© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House

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