Sunday, March 13, 2011

पंचतत्व

रह रह कर यही प्रश्न
मेरे मन में उठता है
कौन हूँ में
क्या अस्तित्व है मेरा
क्यों कोई मुझे पहचानता नहीं है
क्या हम सभी में
समानता नहीं है
सब मौन क्यूँ हैं
कौन हूँ मैं !!

क्या में हवा हूँ
तो फिर स्थिर क्यों हूँ
या पत्थर से टकराकर
बेबस हुआ हूँ
में दीखता नहीं हूँ
या अनदेखा किया है
में हवा भी नहीं हूँ
कौन हूँ मैं !!

क्या में जल हूँ
आज था या कल हूँ
वेग प्रबल है
मेरा मन विह्वल है
क्या बर्फ से पिघला
ये खरा आँखों का पानी
जहां से गुजरा
सब बंजर हुए
क्यों चोट तुम्हे पहुंची
क्या खंजर हुए ?
पानी तेरी आँखों में
मेरी आँखों में
में जल भी नहीं हूँ
कौन हूँ मैं !!

क्या में आग हूँ
या अपनी ही राख हूँ
क्या तुझको ये आग जलाती है
या में खुद ही जलता हूँ
सूरज की तरह तपता हूँ
मेरी आग में रौशनी क्यों नहीं
क्यों तेरे लिए में शबनम हुआ
मेरी आग भी मेरी
आँखों का पानी सुखाती नहीं
मैं आग भी नहीं हूँ
कौन हूँ मैं !!

क्या मैं मिटटी हूँ
बंजर या रेतीली
उगी हैं खर पतवार
या फिर झाडें कटीली
बिखरी हैं कण कण में
ये रेत है या मिटटी
तपती हुई रेत पर
सुलगती है मेरी ज़मीं
कहीं पानी ज्यादा है
और सूखा है कहीं
रेत में उगता है
तिनका महीन
मेरी जिंदगी में
तिनका भी नहीं
मिटटी और रेत
कभी एक
होते नहीं
नहीं मैं मिटटी नहीं हूँ
कौन हूँ मैं !!

क्या मैं आकाश हूँ
ऊँचाइयों में अकेला
या नियति का खेला
क्यों उचक कर तूने
ना चाह छूना मुझे
क्यों तुझमे मुझमे है
अब ये दूरी
मैं कहाँ हूँ तेरे बिन
तू मेरे बिन अधूरी
गर आकाश होता
तो आज़ाद होता
यादों में तेरी
मैं तो बंधा हूँ
नहीं मैं आकाश नहीं हूँ
कौन हूँ मैं !!

न मैं हवा हूँ ना आकाश
ना मिटटी ना आग पानी
कोई तो बताओ
क्या मेरी कहानी
पांच तत्वों से बनता है जीवन
इनसे विरक्त मेरा ये मन
न जीवित न मृत
मैं हूँ जड़ चेतन !!

आह

दुविधा का मायाजाल है
हकीकत में हूँ या
मेरा सिर्फ ख़याल है
शब्दों के रागों पर
बूंदों के मोती
आंसू की धारा
आँखें भिगोती
आँखों ने चुपके से
कुछ तो कहा है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

मेरी बातों में ये जादू
पहले नहीं था
ये क्या नगमा
जो मैंने कहा है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

रात का ख्याल है
सूरज क्यों लाल है
हवा क्यों तेज़
महकते फूलों के सेज
सन्नाटे से ये
क्या गूँज उठ रही है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

ये दस्तक सी क्या हो रही है
इन बिखरे पत्तों ने
किसको पुकारा
इन पत्तों को रौंदकर
कोई तो गुज़रा है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

आँखों को मूंदे हूँ
वो किसका है चेहरा
में राधा हूँ, है वो
कृष्ण मेरा
यमुना के तीरे
तू आता नहीं है

कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

आशाओं के समंदर में
डूबती हुई लहरें
टूटी हुई नाव के
बिखरे हुए टुकड़ों में
ये हलचल क्यों है
चंद साँसों को थामे
ये कौन बह रहा है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

रेत पर लिखी हुई
आयतें
कोई कहानी
दोहरा रही है
वो सूखा है बादल
हवा ले जा रही है
वो रेतीली ज़मीं मेरे
क़दमों से सरकी
वो हाथों से मेरे
जहां जा रहा है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

वो चिंगारी जो उड़ कर
लकड़ी पर गिरी थी
वो जलता तो है लेकिन
रौशनी कहाँ है
मेरा कौन है
क्यों चिता मुझको
जलाती नहीं है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

वो दिया जाने
क्यों जल रहा है
तूफ़ान को जाने
क्या हो गया है
वो जब बुझा था
तो धुंआ क्यों नहीं है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

वो तारे भी
आँखों से ओझल हुए हैं
वो उड़ते परिंदों ने
उड़ना क्यों छोड़ा
वो पीले पत्तों पे
ओस के मोती
रंगों में क्यों
बिखरे नहीं हैं
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

हवा तेज़ थी तो
कदम लडखडाये
साँसों ने भी तो
अब साथ छोड़ा
मेरा के है
जो तुमको
मेरी याद आये
मेरा वजूद भी
घबरा गया है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

में जो गिरा हूँ
क्या तूफ़ान है आया
तेरी आवाज़ क्या
छूकर मुझे गुजरी
ठहरो ! रुक जाओ !
ना नेह्लायो मुझको
गंगा में अमृत बाकी अभी है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

रस्ते से गुज़रा था
जनाज़ा मेरा
अरमानो ने दिया था
कन्धा मुझे
काँटों से अरमान मेरे छिले थे
लहू के बदले आंसू बहा था
सुबह से पहले
था जलना मुझे
फिर क्यों रात बाकी अभी है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

एक पौधा उगा है
जहाँ मेरी चिता जली थी
तेरी आँखों के पानी से
वृक्ष बन रहा है
ये चाय तुम्हे देगा
जब तक जियेगा
मर कर भी रौशन
तुम को करेगा
मेरी चिता में
लकड़ी मेरी नहीं थी
तभी लाश मेरी
अब तलक जल रही है
जलोगी जब तुम तो
ये महसूस होगा
मेरी लाश अब तक
क्यों सांस
लिए जा रही है
कहता नहीं कोई
ये क्या हो रहा है !!

पानी की दरिंदगी

बहता हुआ पानी
जब दरिया को तरता है
चित हर्शान्वित हो
मिटटी को चूम लेता है
धरती के गर्भ से
पौधे अपनी पिपासा तृप्त करते हैं
मलिन किसान के आंसू
खेत तरते हैं
नाउम्मीदी हरते हैं
लहलहाते खेत भी
इतराते और बलखाते हैं
हवाएं सुगंध से
आच्छादित, मिटटी की खुश्की
टाट सी धोती को
रेशम करते हैं
किन्तु पानी की अधिकता
चिंता का कारण हो जाती है
बहता पानी बहा ले जाती है
मिटटी के प्यारों को
फूलों, पत्तों और खुशहाल विचारों को
मलिन किसान की कमर
झुक जाती है
जगे हुए गाँव में
मुर्धनी चा जाती है
अबकी बार हवा लाती है
दुर्गन्ध और सड़ांध
फिर टूटने लगता है
किसान की हिम्मत
और सहनशक्ति का बाँध
टूटे बाँध का पानी
गाँव की जवानी छीन लेता है
चहुँ ओर जलाद्रित धरती पर
बहते हैं मरे हुए पशु
पानी के कलसे , मिटटी के
बर्तन, कई लाशें
कुछ उघाढ़ बदन
बह जाती हैं नीवे , मेढें
टूट जाती है पेड़ से ताने हुए इरादे
प्रस्थान करते हैं किसान
छोड़ कर गाँव की विरानगी
शहर की ओर
शुरू करते हैं नयी जिंदगी
उफ़ ! बहते हुए पानी की
दरिंदगी !!

फांसी पर झूलता किसान

रिसते हुए ज़ख्म, खुरदरी यादें
मुरझा कर धूल हुई राहें
पत्थर काटती हवाओं की सर सर
सूखे झरने की झर झर
अंधेरों में भटकती हुई आवारगी
घुट घुट जीती हुई जिंदगी
स्याह बादल रेत के
खेत में सूखते धान
बिकता हुआ किसान
पत्तों पर तैरते हुए चेहरे
पसीने से सिंचे फसल
तपते अनाज
बेकारी, भुखमरी, ब्याज
बहिन का ब्याह
लूट, फौजदारी का डाह
कराहते कंकाल
बिहार, बंगाल
मध्य, दक्षिण
उत्तर विशाल
जिस्म का सूखता पानी
विचरते हुई लाश
गुमसुम परिंदे
बेलों पर झूलती विधवा
कल्पे हुए बैल
किस्मत का मैल
लाला के ताने
मन न माने
बच्चों की परवरिश
पत्नी का सम्मान
जिम्मेदारी, लाचारी
फांसी पर झूलता किसान !!

लहर दानव

रेत के घर
रेत के सपने
रेत सी तन्हाई
रेत सी यादें
लहरों का समंदर
हारिणी लहरें
ढलती रात
जीता सूरज
गाता मछुआ
चूल्हों से उठता धुंआ
स्कूल को जाता
छोटा बचपन
हांडी में उबलती लहरें
गीला चावल
रोती रोटी
रोता बर्तन
बिखरा काजल
टूटी चूड़ी
टूटे दर्पण
खोया बचपन
खोयी जवानी
लाशें ढ़ोता लंगड़ा बुढ़ापा
भटकते रिश्ते
सड़ती काया
सूनी सूनी
पेड़ की छाया
टूटे फल और टूटी डाली
मांग से है उजड़ी लाली
काला सूरज
पूनम काली
ढहती छत
मढ़ता जीवन
आँख में पानी
घर में लहरें
रस्ते थे जो
बन गयी नहरें
सागर सा ही खारा खारा
सागर से भी ज्यादा गहरे
तन पर ओढा गीला कम्बल
चेहरा पीला
कंठ सूखा
लहर भरा है
जल का लोटा
सर के ऊपर
थोडा अम्बर
पाँव के नीचे
लाश का दलदल
जीवन बाकी कैसे गुज़रे
धरती सारी हो गयी लहरें
सृष्टि तुने कैसी रची है
वक़्त को कह दो
थोड़ा ठहरे
निरीह देखता
रह गया इसवी
लहर दानव
खा गया पृथ्वी !!

मीरा

अँधेरे के जुगनू कहते हैं
आ लपक ले मुझे
दिन में रोशन मायूसी कहती है
रात तमन्नाओ के
ख़त भेजे थे
क्या वो तुम्हे मिले थे ?
डाकिये की साइकिल की घंटी
अब सुनाई नहीं देती
मेरी वेदनायों को कोई
ख़त नही लिखता
पनघट पर हंसती हुई यादें
पानी की डब डब से
मिट जाती है ........... क्यों ?
तपती धरती पर ओस की
पहली बूंदे
जैसे भाप बन कर उड़ जाती हैं
तेरी याद वैसी है
माथे पर पसीने की
बूँद बन कर पनघट पर
रुलाती है
कहती है मुझसे
मेरी कुछ पुरानी बातें
चुप कर और यादों में खो जा
चिट्ठी अभी आती है .....

मंदिर की टूटी सीढ़ियों से
उतरकर मेरा नन्हा बचपन
ठाकुर जी से आँख मिचोली
खेली थी
आज में उसी चौखट पर
कितनी अकेली थी
की साइकिल की तरीन तरीन सी
मंदिर में घंटी बजती है
ठिठोली भी करते हो तुम ठाकुर
मुझपे तुम भी हँसते क्यों हो ?
जाओ, ना बोलू तुमसे ॥
पनघट पे सुनती सखियाँ
न तुमको फिर बुहारेंगी
कहती हु तुमसे ... सब कहते हैं
ख़त ना आएगा .... बोलो तुम
पनघट पर सखियाँ हंसती है क्यों
मुझपर
राधा को चिट्ठी आई है
उसका भाई बोला था
अब के बरस कटनी पर
सजन घर जाएगी
गौना होगा और दुल्हन बन जाएगी
द्वार पर सांकल
अब भी टूटी है
खट खट नहीं करेगा
सोती थी दुपहरी को
ना जागी तो मेरी सखियाँ
पनघट पर हंसती मुझपर
तुम बोलो सब सखियों से
हसना मत पनघट पर
पानी भी डब डब हँसता है
रस्सी भी खड़ खड़ करती है
पानी का बर्तन डूब डूब कर
मुझको मुंह चिढाता है
आया था डाकिया
कहती थी सखियाँ
कह कर मुझे रुलाती हैं
ठाकुर मेरी चिट्ठी लेकर आना
तुम ही और
साइकिल की घंटी से
संदेसा देना तुम ही
सांकल तो टूटी है
पर साजन की चिट्ठी की
मिटटी से तुम लिखना
मेरे सिरहाने
अबकी बार साजन आएगा
मुझको ले जाने ....
मुझको ले जाने ....

अब न हँसेगी सखियाँ मुझ पर
मेरा खत आया है
ठाकुर लेकर
भैय्या मुझको भी भेजेगा
बनकर दुल्हन में जाउंगी
अब ठाकुर के घर !!

Saturday, May 22, 2010

और यूँ सूर्य परास्त हो गया

एकदा ! प्रातः उठते ही सूर्य नज़र आया
मुझे देख कर हंसा और इठलाया
ठन्डे स्वर में बुदबुदाया
तेरे नयनो को जो आवश्यक है
वो मेरा ही प्रकाश है
मैं नहीं तो भू पर सर्वदा अवकाश है
खिन्न हो कर मैं भी बडबडाया
अरे क्रित्घन ! यही तो मेरा उपकार है
नेत्र न खोलूं तो तेरा तेज़ भी बेकार है
उत्तर सुन सूर्य तिलमिलाया
दीप्तिमान हो मुझ पर गुर्राया
मेरे ही तेज़ से सभी कर्म अनुष्ठान होते हैं
हम भी कहाँ कम थे पूछ ही डाला
रात को आप कहाँ विराजमान होते हैं
सूर्य की लालिमा भड़क उठी
तेज़ का ना मेरे अपमान कर
छूते ही तू भस्म हो जायेगा
मंद मंद मैं मुस्कुराया
तू क्या मुझे भस्म कर पायेगा
क्षण भर में मोम की तरह पिघल जायेगा
तेरा समय तो पूरा हो गया है
अब तो तू अस्त हो जायेगा
अवाक सूर्य पस्त हो गया
पर्वतों के पीछे अस्त हो गया
घमंड उसका नष्ट हो गया
और यूँ सूर्य परास्त हो गया

© आलोक, २००९
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दीन हीन दिशा विहीन

जन का मन
करता है रोदन
दीन हीन
दिशा विहीन
व्यथित बाधित
संतप्त प्रताड़ित
उदर की ज्वाला
करती है हाहा
स्वाहा स्वाहा
अभिमानव रुपी
मूषक
उदर ज्वाला
समोदर समान
अर्थ कामना
कमान
शव भेदते बाण
कुटिल कुंठा
धूमिल मर्यादा
निशब्द निस्तब्ध
दीन हीन
दिशा विहीन !!

© आलोक, २००९
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आखिरी बूँद

बारिश की बूंदे
मेरे सूखे मन को तर दे
डूबे हुए तन को
आशाओं से भर दे
ये समंदर फिर प्यासा है
भीषण बड़ा अकाल हुआ है
कुआं पोखर तालाब
नदी स्रोत्र सब हुए बर्बाद
रगों का पानी सूख रहा है
आंसू बनके
आँखों से फूट रहा है
फसलों को जलते देखा मैंने
आँखों के पानी को
होठों को छुकर
प्यास बुझाते देखा मैंने
खूँ से पानी अलग हुआ है
डूबने का अब समय हुआ है
नाउम्मीदी का बाँध भर चुका है
दे दो मुझको
उम्मीद की आखिरी बूँदें
मेरे सूने मन को तर दे !!

© आलोक, २००९
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तू कहाँ है

मेरे प्यासे नैना
कबसे बरस रहे हैं
तुझको पाने को
तरस रहे हैं
जंगल जंगल
पर्वत पर्वत
ढूँढा तुझको
यहाँ भी वहां भी
तू कहाँ है !

आसमा पीछे छूट गया
क्यूँ तू मुझसे रूठ गया
नदियाँ सूखी
पत्थर टूटे
विश्वास मेरा स्थिर है
कहीं भी कभी भी
तू कहाँ है !

आवाज़ मेरी रुआंसा है
साँसों में तपिश
जरा सी है
हिमालय पुकारे
ये सागर पुकारे
जमीं भी आस्मा भी
तू कहाँ है !

आँखों से जब तू
ओझल हुई है
तन को मेरे प्राण
बोझल हुए हैं
मेरे दिन रात
बस तुझे चाहे
धुंआ चीर के
मेरे पास आये
चाहत में बीते
फिजा भी खिज़ा भी
तू कहाँ है !!


© आलोक, २००९
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