Saturday, July 18, 2009

वार्तालाप

इक्कीसवी सदी ने पुछा हमसे
क्यों? कहाँ हो? क्या देखते हो?
मेरे साथ आओ सुनहले सपने देखो
समृद्धि उन्नति और ज्ञान देखो
हमने कहा - हम ''बीस'' में ही भले
इसी में बढे इसी में पले
हम वर्तमान में जीते हैं
रोटी खाकर जल पीते हैं
सुनहले सपने रहने दो
इन आंखों को बंद रहने दो !


चल मेरे साथ अब मत सोच
तुझे सम्पन्नता के दर्शन कराएँ
अधिक पाने की सोच जगाएं
संतोष ही परमसुख है
इसके आगे दुःख ही दुःख है
अब मुझे कहने दो
सिक्कों को चन्द रहने दो !


अरे ! पृथ्वी का है खेल सारा
ये है सभा प्यारा
नई धरती खोजना है
हमारी यह पहली योजना है
इस धरती के लिए युद्ध हुए
मनुष्य ने मनुष्य को मारा है
अधिक धरती होगी तो अधिक युद्ध होंगे
करोड़ों नर बलि होंगे
भूमि को बोझ सहने दो
मिटटी का खंड रहने दो !


चल उस दिशा में चले
जहाँ पुष्प ही पुष्प मिले
जहाँ बालू से आए सुगंध
जहाँ पवन चले मंद मंद
सूरज भी किरणों से नहलाये
नदियाँ भी चंचल संगीत सुनाएँ
नहीं नहीं ! क्षमा करें !
हमने देखा है बालू को सुखाते हुए
पवन को बहाते हुए
सूरज को जलाते हुए
नदी को दहाते हुए
पुष्प तो मुरझा जाते हैं
पीछे दुर्गन्ध छोड़ जाते हैं
विज्ञानं का घमंड रहने दो
विचारों को "कबंध" रहने दो !!

© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House

स्वर्गारोही

हे देवेन्द्र! कोटि प्रणाम
कृपा कर कृपानिदान
भिक्षु हूँ, मुझको दे वर्षादान
जहाँ खुशहाली के जंगल थे
आज वहां बदहाली के रेगिस्तान हैं
जहाँ सुख सम्पदा के मंदिर शिवालय थे
आज वहां दुःख के शमशान हैं
जलमग्न धरती पर जल का आभाव है
छाती फटी है धरा की
तेरा दिया ये घाव है
मेघ! तू कर गर्जना
शांत कर धरती की वेदना
क्यूँ नहीं सुनता धरती का रोदन
मेरा इतना सा अनुमोदन
मेघराज! भेज कर अपने जलदूतों को
तृप्त कर दे सूखी धरती को
देवराज! इतना अभिमान
जिस आसन का है तुझे मान
छीन लूँगा में वो आसन
अंत होगा तेरा शाशन
मैंने किया है ये अनुष्ठान
स्वर्गराज! संभल संभल
मैं स्वर्गारोही
सावधान! सावधान!

© आलोक, २००९
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Sunday, July 12, 2009

तेरे इश्क में

रात सी तन्हा
भोर्रों के अरमां
झील की आँखें
प्यास की प्याली
ओस की चादर
मैला बादल
बहता काजल
हँसता पायल
कांच का सेहरा
चुभते कंकर
वक्त का साथी
मील का पत्थर
दर्द का झुरमुट
याद का मलहम
बोलती बातें
कांपती कसमे
ओझल मंजिल
तपती राहें
साँझ का सांझी
'केस' ओ 'राँझा'
तेरे इश्क में !!

© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House

Wednesday, July 1, 2009

मुजरिम

अब की बार जब लौटा तो
सब कुछ बदला बदला था
सावन में आकाश सुर्ख था
और खेत बंजर थे
चौपाल पर गिरते जलस्तर
की बहस छिडी थी
तो कोई क़र्ज़ माफ़ी
पर अड़ा था
वो देखो ! 'सत्यकाम' आ रहा है
चौपाल आने वाले बजट को ताल
गालियों का बाज़ार गर्म करने लगा
व 'नागो' का बेटा !
वही नागिंदर
वह चोरी की सज़ा काट कर आया है
नही नही ! वह तो नक्सली हो गया है
वह अब क्या लेने आया है ?
उस बूढे को क्या खूब दिन दिखलाये हैं !
मिश्रा जी की चौखट से गुजरा
तो ठिठका 'डौली' की उन यादों पर
बीच मंडप से भागा था
रिश्तों से बगावत कर
समाज बौखला उठा था
इस खिलाफत पर
छोटे भाई ने थामा था
हाथ 'डौली' का उस दिन
उस दिन से बन गया
सत्यकाम
समाज का मुजरिम !!!!

© आलोक, २००९
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