हे देवेन्द्र! कोटि प्रणाम
कृपा कर कृपानिदान
भिक्षु हूँ, मुझको दे वर्षादान
जहाँ खुशहाली के जंगल थे
आज वहां बदहाली के रेगिस्तान हैं
जहाँ सुख सम्पदा के मंदिर शिवालय थे
आज वहां दुःख के शमशान हैं
जलमग्न धरती पर जल का आभाव है
छाती फटी है धरा की
तेरा दिया ये घाव है
मेघ! तू कर गर्जना
शांत कर धरती की वेदना
क्यूँ नहीं सुनता धरती का रोदन
मेरा इतना सा अनुमोदन
मेघराज! भेज कर अपने जलदूतों को
तृप्त कर दे सूखी धरती को
देवराज! इतना अभिमान
जिस आसन का है तुझे मान
छीन लूँगा में वो आसन
अंत होगा तेरा शाशन
मैंने किया है ये अनुष्ठान
स्वर्गराज! संभल संभल
मैं स्वर्गारोही
सावधान! सावधान!
© आलोक, २००९
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