इक्कीसवी सदी ने पुछा हमसे
क्यों? कहाँ हो? क्या देखते हो?
मेरे साथ आओ सुनहले सपने देखो
समृद्धि उन्नति और ज्ञान देखो
हमने कहा - हम ''बीस'' में ही भले
इसी में बढे इसी में पले
हम वर्तमान में जीते हैं
रोटी खाकर जल पीते हैं
सुनहले सपने रहने दो
इन आंखों को बंद रहने दो !
चल मेरे साथ अब मत सोच
तुझे सम्पन्नता के दर्शन कराएँ
अधिक पाने की सोच जगाएं
संतोष ही परमसुख है
इसके आगे दुःख ही दुःख है
अब मुझे कहने दो
सिक्कों को चन्द रहने दो !
अरे ! पृथ्वी का है खेल सारा
ये है सभा प्यारा
नई धरती खोजना है
हमारी यह पहली योजना है
इस धरती के लिए युद्ध हुए
मनुष्य ने मनुष्य को मारा है
अधिक धरती होगी तो अधिक युद्ध होंगे
करोड़ों नर बलि होंगे
भूमि को बोझ सहने दो
मिटटी का खंड रहने दो !
चल उस दिशा में चले
जहाँ पुष्प ही पुष्प मिले
जहाँ बालू से आए सुगंध
जहाँ पवन चले मंद मंद
सूरज भी किरणों से नहलाये
नदियाँ भी चंचल संगीत सुनाएँ
नहीं नहीं ! क्षमा करें !
हमने देखा है बालू को सुखाते हुए
पवन को बहाते हुए
सूरज को जलाते हुए
नदी को दहाते हुए
पुष्प तो मुरझा जाते हैं
पीछे दुर्गन्ध छोड़ जाते हैं
विज्ञानं का घमंड रहने दो
विचारों को "कबंध" रहने दो !!
© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House

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