Sunday, October 18, 2009

दीवाली के रंग है

दीपों की होली पर
दिल जलता क्यूँ है?
सीने में भरा लोहा
मोम की तरह
पिघलता क्यूँ है?

आज, रात जागेगी
अंधेरों से भागेगी
ये चाँद सितारों को
खलता क्यूँ है?

बारूदी इत्र जब
मदहोश करती है
नशीली रात को
गुमसुम बैठा भवर
मयखाने का पता
पूछता क्यूँ है?

सन्नाटे चिल्ला कर
ख़ुद से बात करते हैं
विरानो में आहट
गूंजता क्यूँ है?

मेरे दिन रैन जलते हैं
निराशा के झींगुर
पलते हैं
अंधी आँखे
ढूंढता क्यूँ है?

बिना तेल दीपक
बिना लौ भी
जलता है
रौशनी तो नही
अंधेरों में फ़िर भी
दिखता है
सूरज तू
ढलता क्यूँ है?

ऊंचाइयों के आयाम
छूकर
ओंधे मुहँ गिरता है
गिरने के लिए
फ़िर
संभालता क्यूँ है?

वक्त के चक्रवात से
फूटेंगी ग़म की
धाराएँ
बादल सूखे
आंखों में
बरसात क्यूँ है?

हँसता है कोई
रिश्तों के जनाजे पर
खुश था कोई
मुझे दफन करके
लाश पर मेरी
मातम क्यूँ है?

© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House

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