Saturday, February 21, 2009

द्वारपाल द्वार खोलो



विमूढ् हो, त्यज कर
'आलोक' रथ पर पसर
मृत्युलोक मुझे झमा कर
मैं चला इन्द्र के घर

मित्र आये, सहभागी आये
पहुंचे दर्शनाभिलाशी अपार
देकर बिदायी, कर अन्तिम प्रणाम
सब कर गये प्रस्थान
मैं भी चल पड़ा उस धाम
अंतहीन राह, पहुँचा मगर

द्वारपाल द्वार खोलो !

अरे ! क्या तू बधिर
हुआ मैं अधीर
हे वीर हे सुधीर
सुन मेरी पीर
में मानव हूँ
पृथ्वी वासी हूँ

संदेश भिजवाया
ऐरावत आया
मैंने किया नमन
ऐरावत बोला हे सज्जन
क्यों आया है,
तेरा क्या है प्रयोजन

कुछ खीज खीज कर
दांतों को पीस कर
मैंने कहा
हे इन्द्र
द्वार तुम्हारा बंद है
तिस ज्ञान भी मंद है

धरा पर अशांति अधर्म का राज है
क्षुब्ध पीड़ित शोषित धरा आज है
दुःख अशांति विनाश को मैं त्याग
हो कर बैराग
बड़ी अभिलाषा ले कर
मैं आया तेरे घर
अतिथि देवो भव
तू कर मेरा सत्कार

मेघ गरजा और गुर्राया
हाए रे मानव
क्या तेरा अधिकार ?
तुझ पे है धिक्कार !

तू ने ना दुखों को झेला है
ना ही मुसीबतों से खेला है
जिस दिन तू करेगा सागर पार
तिस दिन रश्मिरथ पर होना सवार
तब खुलेगा येह किवाड

हे बैरागी, मैं दूँगा तुम्हे आसन
पहले दो ये वचन
तू कर दे अब प्रस्थान
बन समय से बलवान
मृत्यु मै तु जीवन् को खोजता है
ये महामूर्ख्ता है !!
ग्रहन कर देवज्ञान
मैने किया धरा पर प्रस्थान

द्वारपाल द्वार खोलो !!!!



© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo..!! Creative House

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