धुऐं की तरह भटकता रहा मैं
कुछ दूर जाकर ओझल हुआ
क्या मंज़िल मिल गयी मुझे
या कारवां गुज़र गया !
ये कैसा सफ़र था
ये कैसी थी यादें
कदमों के निशान ना थे
सिसकियों के कान्टे थे
और मुरझाई हुई थी यादें
कण्ठ से निकल कर
हवा हो गई
मेरी चीख भी शायद
धुआँ हो गई !!
तमन्नाओं के अंधेरे
दिन में मोम हो जाते हैं
अंधेरों का साया पड़ते ही
अरमान जाग जाते हैं
फ़िर रात जल कर
सुबह जवान हो गई
मोम पिघलकर राख
और रोशनी धुआँ हो गयी !!!
© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo..!! Creative House

No comments:
Post a Comment