एकदा ! प्रातः उठते ही सूर्य नज़र आया
मुझे देख कर हंसा और इठलाया
ठन्डे स्वर में बुदबुदाया
तेरे नयनो को जो आवश्यक है
वो मेरा ही प्रकाश है
मैं नहीं तो भू पर सर्वदा अवकाश है
खिन्न हो कर मैं भी बडबडाया
अरे क्रित्घन ! यही तो मेरा उपकार है
नेत्र न खोलूं तो तेरा तेज़ भी बेकार है
उत्तर सुन सूर्य तिलमिलाया
दीप्तिमान हो मुझ पर गुर्राया
मेरे ही तेज़ से सभी कर्म अनुष्ठान होते हैं
हम भी कहाँ कम थे पूछ ही डाला
रात को आप कहाँ विराजमान होते हैं
सूर्य की लालिमा भड़क उठी
तेज़ का ना मेरे अपमान कर
छूते ही तू भस्म हो जायेगा
मंद मंद मैं मुस्कुराया
तू क्या मुझे भस्म कर पायेगा
क्षण भर में मोम की तरह पिघल जायेगा
तेरा समय तो पूरा हो गया है
अब तो तू अस्त हो जायेगा
अवाक सूर्य पस्त हो गया
पर्वतों के पीछे अस्त हो गया
घमंड उसका नष्ट हो गया
और यूँ सूर्य परास्त हो गया
© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House
Saturday, May 22, 2010
दीन हीन दिशा विहीन
जन का मन
करता है रोदन
दीन हीन
दिशा विहीन
व्यथित बाधित
संतप्त प्रताड़ित
उदर की ज्वाला
करती है हाहा
स्वाहा स्वाहा
अभिमानव रुपी
मूषक
उदर ज्वाला
समोदर समान
अर्थ कामना
कमान
शव भेदते बाण
कुटिल कुंठा
धूमिल मर्यादा
निशब्द निस्तब्ध
दीन हीन
दिशा विहीन !!
© आलोक, २००९
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करता है रोदन
दीन हीन
दिशा विहीन
व्यथित बाधित
संतप्त प्रताड़ित
उदर की ज्वाला
करती है हाहा
स्वाहा स्वाहा
अभिमानव रुपी
मूषक
उदर ज्वाला
समोदर समान
अर्थ कामना
कमान
शव भेदते बाण
कुटिल कुंठा
धूमिल मर्यादा
निशब्द निस्तब्ध
दीन हीन
दिशा विहीन !!
© आलोक, २००९
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आखिरी बूँद
बारिश की बूंदे
मेरे सूखे मन को तर दे
डूबे हुए तन को
आशाओं से भर दे
ये समंदर फिर प्यासा है
भीषण बड़ा अकाल हुआ है
कुआं पोखर तालाब
नदी स्रोत्र सब हुए बर्बाद
रगों का पानी सूख रहा है
आंसू बनके
आँखों से फूट रहा है
फसलों को जलते देखा मैंने
आँखों के पानी को
होठों को छुकर
प्यास बुझाते देखा मैंने
खूँ से पानी अलग हुआ है
डूबने का अब समय हुआ है
नाउम्मीदी का बाँध भर चुका है
दे दो मुझको
उम्मीद की आखिरी बूँदें
मेरे सूने मन को तर दे !!
© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House
मेरे सूखे मन को तर दे
डूबे हुए तन को
आशाओं से भर दे
ये समंदर फिर प्यासा है
भीषण बड़ा अकाल हुआ है
कुआं पोखर तालाब
नदी स्रोत्र सब हुए बर्बाद
रगों का पानी सूख रहा है
आंसू बनके
आँखों से फूट रहा है
फसलों को जलते देखा मैंने
आँखों के पानी को
होठों को छुकर
प्यास बुझाते देखा मैंने
खूँ से पानी अलग हुआ है
डूबने का अब समय हुआ है
नाउम्मीदी का बाँध भर चुका है
दे दो मुझको
उम्मीद की आखिरी बूँदें
मेरे सूने मन को तर दे !!
© आलोक, २००९
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तू कहाँ है
मेरे प्यासे नैना
कबसे बरस रहे हैं
तुझको पाने को
तरस रहे हैं
जंगल जंगल
पर्वत पर्वत
ढूँढा तुझको
यहाँ भी वहां भी
तू कहाँ है !
आसमा पीछे छूट गया
क्यूँ तू मुझसे रूठ गया
नदियाँ सूखी
पत्थर टूटे
विश्वास मेरा स्थिर है
कहीं भी कभी भी
तू कहाँ है !
आवाज़ मेरी रुआंसा है
साँसों में तपिश
जरा सी है
हिमालय पुकारे
ये सागर पुकारे
जमीं भी आस्मा भी
तू कहाँ है !
आँखों से जब तू
ओझल हुई है
तन को मेरे प्राण
बोझल हुए हैं
मेरे दिन रात
बस तुझे चाहे
धुंआ चीर के
मेरे पास आये
चाहत में बीते
फिजा भी खिज़ा भी
तू कहाँ है !!
© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House
कबसे बरस रहे हैं
तुझको पाने को
तरस रहे हैं
जंगल जंगल
पर्वत पर्वत
ढूँढा तुझको
यहाँ भी वहां भी
तू कहाँ है !
आसमा पीछे छूट गया
क्यूँ तू मुझसे रूठ गया
नदियाँ सूखी
पत्थर टूटे
विश्वास मेरा स्थिर है
कहीं भी कभी भी
तू कहाँ है !
आवाज़ मेरी रुआंसा है
साँसों में तपिश
जरा सी है
हिमालय पुकारे
ये सागर पुकारे
जमीं भी आस्मा भी
तू कहाँ है !
आँखों से जब तू
ओझल हुई है
तन को मेरे प्राण
बोझल हुए हैं
मेरे दिन रात
बस तुझे चाहे
धुंआ चीर के
मेरे पास आये
चाहत में बीते
फिजा भी खिज़ा भी
तू कहाँ है !!
© आलोक, २००९
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मेरी आँखें पथरायीं
बारिश से भीगी धरती से
उठती ये सौंधी महक
मिटटी की
तेरे बदन सी है
क्या तेरा तन
माटी नहीं है?
क्यों मेरी आँखें पथरायीं?
ये बंजर क्यों है?
आंधी में उड़ती हुई रेत
यहाँ मेघ
तुम क्यूँ नहीं बरसे?
राह तकते
बरसों बीते
मेरी आँखें पथरायीं
क्या तेरा तन माटी नहीं है?
रोते हुए रेत
फिर भी सूखे हैं
कण कण में बिखरे
सोचे यही
कब माटी में मिलकर
मिटटी बनूँगा
सोच सोच
मेरी आँखें पथरायीं
बिखरी हुई मेरी
कहानी को
क्या बारिश
बहा ले गयी
नदियों में बहते
सागर में मिलके
किनारे पड़ी रेत पर
तेरे पैरों की निशान
ढूँढ़ते ढूँढ़ते
मेरी आँखें पथरायीं
क्या बैरी बारिश ने
रेत पर
तेरे पैरों के निशान
मिटाए हैं
लेकिन उसका क्या जो
महक तेरी फिर भी
रेत को महका रही है
ऐ संगतराश !
एक मूरत इस रेत की बना दे
जिससे ताजमहल
की महक आये
बना ऐ संगतराश
रेत का ताजमहल
जिसे देखने को
मेरी आँखें पथरायीं !!
© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House
उठती ये सौंधी महक
मिटटी की
तेरे बदन सी है
क्या तेरा तन
माटी नहीं है?
क्यों मेरी आँखें पथरायीं?
ये बंजर क्यों है?
आंधी में उड़ती हुई रेत
यहाँ मेघ
तुम क्यूँ नहीं बरसे?
राह तकते
बरसों बीते
मेरी आँखें पथरायीं
क्या तेरा तन माटी नहीं है?
रोते हुए रेत
फिर भी सूखे हैं
कण कण में बिखरे
सोचे यही
कब माटी में मिलकर
मिटटी बनूँगा
सोच सोच
मेरी आँखें पथरायीं
बिखरी हुई मेरी
कहानी को
क्या बारिश
बहा ले गयी
नदियों में बहते
सागर में मिलके
किनारे पड़ी रेत पर
तेरे पैरों की निशान
ढूँढ़ते ढूँढ़ते
मेरी आँखें पथरायीं
क्या बैरी बारिश ने
रेत पर
तेरे पैरों के निशान
मिटाए हैं
लेकिन उसका क्या जो
महक तेरी फिर भी
रेत को महका रही है
ऐ संगतराश !
एक मूरत इस रेत की बना दे
जिससे ताजमहल
की महक आये
बना ऐ संगतराश
रेत का ताजमहल
जिसे देखने को
मेरी आँखें पथरायीं !!
© आलोक, २००९
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