बारिश से भीगी धरती से
उठती ये सौंधी महक
मिटटी की
तेरे बदन सी है
क्या तेरा तन
माटी नहीं है?
क्यों मेरी आँखें पथरायीं?
ये बंजर क्यों है?
आंधी में उड़ती हुई रेत
यहाँ मेघ
तुम क्यूँ नहीं बरसे?
राह तकते
बरसों बीते
मेरी आँखें पथरायीं
क्या तेरा तन माटी नहीं है?
रोते हुए रेत
फिर भी सूखे हैं
कण कण में बिखरे
सोचे यही
कब माटी में मिलकर
मिटटी बनूँगा
सोच सोच
मेरी आँखें पथरायीं
बिखरी हुई मेरी
कहानी को
क्या बारिश
बहा ले गयी
नदियों में बहते
सागर में मिलके
किनारे पड़ी रेत पर
तेरे पैरों की निशान
ढूँढ़ते ढूँढ़ते
मेरी आँखें पथरायीं
क्या बैरी बारिश ने
रेत पर
तेरे पैरों के निशान
मिटाए हैं
लेकिन उसका क्या जो
महक तेरी फिर भी
रेत को महका रही है
ऐ संगतराश !
एक मूरत इस रेत की बना दे
जिससे ताजमहल
की महक आये
बना ऐ संगतराश
रेत का ताजमहल
जिसे देखने को
मेरी आँखें पथरायीं !!
© आलोक, २००९
Chaat Vaat Khaalo!! Creative House
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