Friday, February 27, 2009

मैं "ऐक" हूँ

संसार ऐक मेला है
कहीं फूल कहीं ढेला है
कहीं नाच गाने
कहीं कठपुतली का खेला है
सभी "उसके" खेल - खिल्लोने हैं
खिल्लोने अनेक हैं
मैं "ऐक" हूँ !

मेले में भीड़ है
कोई राम है कोई कबीर है
जात - पात की खिंची लकीर है
कहीं भव्य महल
कहीं कुटीर हैं
वर्ग अनेक हैं
मैं "ऐक" हूँ !!

यहाँ इस भीड़ में
युवा हैं वृद्ध हैं
दीन हैं समृद्ध हैं
सबका लक्ष्य निश्चित है
पाने को क्यों
चिंतित है
सबका रथ तो ऐक है
पहिये अनेक हैं
मैं "ऐक" हूँ !!!

लोग यहाँ धर्मांध हैं
अगल - बगल शोक और आनंद हैं
आँख खुली है
किंतु बंद है
विद्या व ज्ञानका फैलाव है
फिर भी मति मंद है
धर्माधिकारी का साम्राज्य है
धर्मों द्वारा बँटा ये समाज है
भगवन अनेक हैं
में "ऐक" हूँ !!!!




© आलोक, २००९


Chaat Vaat Khaalo..!! Creative House

3 comments:

  1. Dude, get a book published.
    You have what it takes.

    Specific to this poem, the contrast between the words evokes emotions.

    Nice, carry on.

    - Praveer

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  2. Thanks.. i m trying to get one published

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