Sunday, March 13, 2011

पानी की दरिंदगी

बहता हुआ पानी
जब दरिया को तरता है
चित हर्शान्वित हो
मिटटी को चूम लेता है
धरती के गर्भ से
पौधे अपनी पिपासा तृप्त करते हैं
मलिन किसान के आंसू
खेत तरते हैं
नाउम्मीदी हरते हैं
लहलहाते खेत भी
इतराते और बलखाते हैं
हवाएं सुगंध से
आच्छादित, मिटटी की खुश्की
टाट सी धोती को
रेशम करते हैं
किन्तु पानी की अधिकता
चिंता का कारण हो जाती है
बहता पानी बहा ले जाती है
मिटटी के प्यारों को
फूलों, पत्तों और खुशहाल विचारों को
मलिन किसान की कमर
झुक जाती है
जगे हुए गाँव में
मुर्धनी चा जाती है
अबकी बार हवा लाती है
दुर्गन्ध और सड़ांध
फिर टूटने लगता है
किसान की हिम्मत
और सहनशक्ति का बाँध
टूटे बाँध का पानी
गाँव की जवानी छीन लेता है
चहुँ ओर जलाद्रित धरती पर
बहते हैं मरे हुए पशु
पानी के कलसे , मिटटी के
बर्तन, कई लाशें
कुछ उघाढ़ बदन
बह जाती हैं नीवे , मेढें
टूट जाती है पेड़ से ताने हुए इरादे
प्रस्थान करते हैं किसान
छोड़ कर गाँव की विरानगी
शहर की ओर
शुरू करते हैं नयी जिंदगी
उफ़ ! बहते हुए पानी की
दरिंदगी !!

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